जीवन की हर गतिविधि को याद रक्खों, जीने के हर क्षण का स्वाद चक्खो । पूजा व्यक्ति से ज्यादा भक्ति की हो, अभिव्यक्ति से ज्यादा शक्ति की हो ।मुश्किलों को पार करो और सफलता का सदा वरण करो ।
हार में भी जीत को देखते रहोगे तो जमाना तुम्हारा अनुशरण करेगा । हम योजनाबद्ध तरीके से अपने दिन की शुरुआत करें, अपने इष्ट का स्मरण प्रसन्नचित होकर करें।देव , गुरु और धर्म में हमारी आस्था को पुष्ट रखते हुए अपने आत्महित के साथ साथ दूसरों के भी हित चिंतन करते हुए अपने सभी किर्या कलाप को शुद्धभाव से करें हम विवेकपूर्वक हिंसा के अल्पीकरण के द्वारा जीने का प्रयास करें।
बचपन में मुझे कहते थे भगवान की भक्ति में लीन रहो। याद आती हैं वो लाइने-
भक्ति करता छूटे मारा प्राण प्रभु एवु मांगु छूँ , रहे हृदय कमल माँ तारूँ ध्यान प्रभु एवु मांगु छूँ ।
इसलिए हृदय आज भी पवित्रता की गवाही देता हैं- कि जिसने राग-द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया , सब जीवों को मोक्ष – मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया, बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो।
अब तर्क चला की हम रोज रोज भगवद् भक्ति में ही क्यों लगे रहें?मासिक या साप्ताहिक आराधना ही क्यों न करें ? हो सकता हैं तर्क सही पर जैसे एक माँ के सामने बच्चा अपनी बात रोज़ मनवाता हैं ज़िद करता हैं कुछ ऐसे भी भावों से हमें भक्ति करनी चाहिए यह नियमित एवं सही समय पर करना सार्थक हैं ।
क्या खोया- क्या पाया सब अपने बनाए कर्म के कारण है । इसलिए उस शक्ति’ की तो हमारे मन में सदैव स्मृति कोई भी कार्य करते हुए रहनी ही चाहिए । पल भर के लिए भी उसकी तो मन से विस्मृति नहीं होनी चाहिए क्योकि वही हमारी सक्षमता व सफलता का राज है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
यह भी पढ़ें :-