मन में हम जैसा सोचेंगे वैसे ही हमारे भाव होंगे । भाव के अनुसार ही कर्मों का चक्र चलता रहता है । ईर्ष्या में जलना बड़ी नासमझी है।
ईर्ष्या वो आग है जिसे पानी से बुझाना सम्भव नहीं। यह आग तब तक शांत नहीं होती जब तक स्वयं उस ईर्ष्यालु मनुष्य को पूर्ण जलाकर भस्म न कर दे।
अगर हिम्मत है तो हम अवश्य जले ,मगर दीपक की तरह जो अपने स्नेह प्रकाश में सबका जीवन रोशन कर पाए और स्वयं को भी प्रकाशित करे।
ईर्ष्या एक ऐसा शब्द है जो हमारे स्वयं के जीवन को तो तहस-नहस करता है औरों के जीवन में भी खलबली मचा देंता है।यदि हम किसी को सुख या खुशी नहीं दे सकते तो कम से कम दूसरों के सुख और खुशी देखकर जलें नही ।
और यदि हमें खुश नहीं होना है तों न सही, अतः हम किसी की खुशियों को देखकर अपने आपको ईर्ष्या की आग में तों ना जलाएं।
जो जीवन की आधारभुत जरूरतों और असीमित आकांक्षाओं में भेदरेखा खींच लेना जान जाता है।जरूरतें सबकी पूरी हो ,ये काम्य है और होनी भी चाहिए,पर और और की आपाधापी का कोई ओर छोर नहीं होता ।
कहा गया है कि क्रोध हमारी आंखों में रहता है, मान हमारी गर्दन में, माया हमारे पेट में रहती हैलेकिन लोभ जिसे असंतुष्टि भी कहते हैं , वो हमारे शरीर के एक एक कोशिकाओं में रहता है, लोभ को सब कषायों का बाप कहा गया है।
तभी तो सब कषाय छूटने के बाद सबसे अंत मे 10वें गुणस्थान में लोभ छूटता है,वीतराग बनने के समय में,लोभ छूटते ही वीतराग बन जाता है जीव।हम अपने विवेक से हर पल अप्रमत्त रहने की जागरूकता बरतते रहे । परोपकार परम् धन है,संतोष उससे भी बड़ा धन।
हम प्रसनचित्त रहना चाहते है तो छोटी छोटी बातें सेवा भाव, परोपकार आदि गुणों को अपनाकर आत्मा के असीम आनन्द को पा सकते हैं।
जिस तरह खून से सने कपड़े को खून से नहीं, साबुन से साफ कर सकते हैं, वैसे ही हम लोभ को दूसरे से ज्यादा पाने की आपाधापी सेनहीं, सन्तोष रूपी धन से हरा सकते है।
संतोषी होना एक अमोघसूत्र है।हम अपने जीवन में जितना इसे हम सही से अपना ले अपने जागरूकता से, उतना ही हम प्रसन्नचित्त रह पाएंगे। क्योंकि मन एक ऐसी जमीन है जहॉं आप जैसी जिस तरह से मानसिकता का बीज बोएँगे वैसा ही फल पाएँगे।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)