निर्लिप्तता का अर्थ हुआ कि हमारी किसी के प्रति कैसे भी आसक्ति नहीं हो चाहे हो तो नहीं तो । इस जीवन में ज़िंदगी जीने के अलावा भी बहुत कुछ है, यों ही जीवन जीने के अलावा भी इसमें बहुत कुछ होना चाहिए, जीवन का कोई ऊँचा हेतु लक्ष्य होना चाहिए, जीवन का हेतु इस प्रश्न के सही जवाब तक पहुँचना है कि मैं कौन हूँ ?
यह प्रश्न कितने ही जन्मों से निरुत्तर है, मैं कौन हूँ ? की इस खोज में बाकी बची कड़ियाँ ज्ञानीपुरुष के शब्दों में मिलती हैं, अतः परमात्मा है ? परमात्मा है ही और वह हमारे पास ही है, बाहर कहाँ खोजते हैं ?
पर कोई हमें यह दरवाज़ा खोल दे तो दर्शन कर पायें न, यह दरवाज़ा ऐसे बंद हो गया है कि खुद से खुल पाये, ऐसा है ही नहीं, वह तो जो खुद पार हुए हो, ऐसे तरणतारण, तारणहार ज्ञानी पुरुष का ही काम है, अर्थात ‘My’ की वजह से मोक्ष नहीं होता है, ‘मैं कौन हूँ का ज्ञान होने पर ‘My’ छूट जाता है, ‘My’ छूट गया तो सब छूट गया।
जीवन में यदि कुछ आस’ लगा कर बैठ गए तो निश्चित मानें वह कभी पूरी नहीं होगी और हमारी जिन्दगी अंतहीन “और-और” के महासागर में गोते लगाती रहेगी।
इसीलिए जीने का सही सर्वोत्तम तरीका है आँख बंद करें, अंदर उतरें और जितना हो सके वहीं ठहरे रहने का अभ्यास करें।इस तरह रुकना ही जीवन है। अगर कुछ लालसा में शुरू कर दी लगानी दौड़ तब फिर उसमें विराम नहीं हैं ।
वहाँ दौड़ अविराम है पर उसमें कुछ पाने का कोई काम नहीं हैं ।हम इस जीवन के अमूल्य क्षण खोते जाएँगे ‘और-और’ करते-करते जीवन ही खो देंगे।
इस तरह निर्लिप्तता का वास्तविक मतलब है जो कुछ भी हो हमारे पास वस्तु हो या सम्बन्धों के अपनत्व का आभास आदि – आदि उन सब में हमारा अनासक्त भाव का प्रयास रहे । यानि वह है तो ठीक न हो तो भी ठीक।यही निर्लिप्तता हमारे जीवन में आये।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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