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भगवन! वो बचपन फिर से लौटा दो ना

भगवन! वो बचपन फिर से लौटा दो ना
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भावनाओं का पुतला है आदमी। मुख्यतः भावना ही है जीवनचर्या का अमिय आधार। सारी प्रवृत्तियाँ, क्रियाएँ, प्रतिक्रियाएँ चलती हैं भावनाओं के ही अनुसार। कहते है तारक्की की है , हमने इतनी की पहुँच गए हम चाँद और मंगल ग्रह पर। रोबोट से होते ओपेरेशन तो रिमोट से बनायें सुविधांए के सारे साधन।

चुटकी भी नहीं सेकंड में ही, दुनिया भर के समाचार और व्यापार की सारी हर बारीकियां ,हाल चाल देश विदेश की। पर अफ़सोस हाल न जाने हम इर्दगिर्द अपने बागल में बैठे इंसान की।खुशियाँ क्या होती है ?

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भुलगये हम मुस्कराना भी । छोटी सी ख़ुशी तो मनो हमको लगती नहीं ख़ुशी। हम ख्वाब देखते हैं महाराजाओं से। निन्यानवे हैं पर एक के लिए इतनी दौड़ धुप कि रात दिन मगन है उसे कमाने जो हाथ में है वो तुच्छ है ।

जो नहीं वो एक उसपर जी जान एक है।भाई -बहन ,मात -पिता सब हम भूल गये । बस नगद नारायण ही अपना सब कुछ है। गैर लगते प्यारे , अपने हमें बेगाने ।भूल हम सेवा माँ बाप की बस लगे सीमित सोच अपने ही परिवार की चिंता में ।

मियां बीवी और बच्चे -बस इतना ही संसार। दोस्तों से हो दिली यारी अपने लगे खारे बेगाने। कहाँ वो माँ की बनायीं रोटियां ,अब सारा खेल होटल या बाईयाँ। पत्नी मुशरूफ़ किटी में ।

बच्चे सिसके दाई की गोदियोँ में। कौन कहाँ कब कैसे जाता खबर होती न हम सबको ।बस मोबाइल से हो जाते हमारे संवाद ये क्या जिंदगी है भाई? वो हमारे पुराने दिन ही अच्छे थे जब हम मिल जुलकर खाते सब बांटकर मिठाईयां। एक ही बिस्तर पर सो जाते पहन लेते थे एक दूसरे के छोटे कपडे ।

खेल लेते थे हम कंचे गुलिडंडा या सितोलिय । मस्त बेपरवाह जिंदगी हमें कोई फिर से लौटा दे। यादें फिर से हमें ताज़ा करादे भगवन बचपन के वो दिन हमें फिर लौट दे।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)

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