सुख का कर्ता कोई और नहीं व्यक्ति स्वयं है । इसी तरह श्रेय अच्छे कार्यों का स्वयं पर लेना वृथा अभिमान है क्योंकि इस जगत में जो कुछ भी किसी के साथ होता है वह निज कर्मों के ही हाथ हैं ।
सुख और दुःख धूप-छाया की तरह सदा इंसान के साथ रहते हैं । लंबी जिन्दगी में खट्ठे-मीठे पदार्थों के समान दोनों का स्वाद चखना होता है । सुख-दुःख के सह-अस्तित्व को आज तक कोई मिटा नहीं सका है ।
जीवन की प्रतिमा को सुन्दर और सुसज्जित बनाने में सुख और दुःख आभूषण के समान है ।इस स्थिति में सुख से प्यार और दुःख से घृणा की मनोवृत्ति ही अनेक समस्याओं का कारण बनती है और इसी से जीवन उलझनभरा प्रतीत होता है ।
हमे जरूरत है इनदोनों स्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने की, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की, एक दुखी आदमी दूसरे दुखी आदमी की तलाश में रहता है।
उसके बाद ही वह खुश होता है, यही संकीर्ण दृष्टिकोण इंसान को वास्तविक सुख तक नहीं पहुंचने देता है । अतः हमें अपने अनंत शक्तिमय और आनन्दमय स्वरूप को पहचानना चाहिए तथा आत्मविश्वास और उल्लास की ज्योति प्रज्ज्वलित करनी चाहिए, इसी से वास्तविक सुख का साक्षात्कार संभव है।
जो कुछ आप हैं नहीं दूसरों के सामने वो बनना, अथवा वो क्षणिक व्यवहार जो आप द्वारा एक व्यक्ति को प्रभावित करने के लिए उसके साथ किया जाता है। सच माने तो वह दिखावा हैं भलाई घर छोड़कर ही नहीं होती, घर जोड़कर भी हो जाती है। भेष बदलने से ही नहीं , भाषा बदलने से भी भलाई होती हैं ।
बुज़ुर्गों ने सही कहा हैं कि दूसरों की मदद करते हुए यदि दिल में खुशी हो तो वही सेवा है बाकी सब दिखावा है।हम बस भलाई करते रहे बहते पानी की तरह,बुराई खुद ही किनारे लग जाएगी कचरे की तरह ।
वैसे भी नेक लोगों की संगत से हमेशा भलाई ही मिलती है क्योंकि हवा जब फूलों से गुज़रती है तो वो भी ख़ुशबूदार हो जाती है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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