स्वधर्मो निधनं श्रेय : पर धर्मो भयावह
हमारे जीवन की साँसें चंद है । ये जाने कब मंद हो जायें । हम हर दिन को सही से जीयें वह हर लम्हे का उपयोग करें । वह जो पल गया उसका संताप हो यही कि आनेवाले हर पल का सही से हमारे द्वारा भरपूर सदुपयोग होगा ।
हम गर्व से बढ़-बढ़ कर कहते हैं कि हम महावीर के अनुयायी हैं, हम महावीर को मानते हैं पर हम में से कितने हैं जो यह अंतरावलोकन करते हैं कि क्या हम महावीर की भी मानते हैं?
उनके जीवन के परिषहों की तो कल्पना ही छोड़ें, क्या हम दैनिक जीवन में तनिक कष्ट भी बिना ‘ओह -ऊफ’ के सहन कर पाते हैं? हम क्या मन में ऊहापोह नहीं मचाते हैं ? वह जरा सी मनचाही न होने पर क्या हम शांत-चित्त रह पाते हैं ?
उद्विग्न तो नहीं हो जाते हैं? हम जीवन की किसी भी तरह कि विपरीत परिस्थितियों में क्या महावीर की तरह संयत रह पाते हैं? विचलित तो नहीं हो जाते हैं? हमारे जीवन में जो भी कष्ट आते हैं, क्या हम कर्मोंदय मान कर सहन कर लेते हैं?
क्या हम हर परिस्थिति में तनाव मुक्त रह पाते हैं? क्या हम अनेकांतवाद के सुन्दर सिद्धांत को जीवन के आचरण का अभिन्न अंग बना पाते हैं? वह हम बात-बात में हठधर्मी पर तो नहीं अड़ जाते हैं।
हम स्थूल हिंसा आदि तो नहीं करते पर क्या मानसिक, वाचिक हिंसा से बच पाते हैं? क्या हम सही से परिग्रह से अपरिग्रह की ओर कदम बढ़ाने का प्रयास करते हैं? ऐसे छोटे-छोटे व्रत-नियम ग्रहण करने की क्या हम प्रवृत्ति रखते हैं? आदि-आदि ।
हम अगर उपरोक्त कसौटी में खरे उतरते हैं तो निश्चय ही गर्व से कह सकते हैं हम महावीर को भी मानते हैं और महावीर की भी मानते हैं। हम तभी गर्व से कह सकते हैं महावीर के सच्चे अनुयायी हैं। भगवत गीता में भी यह लिखा है है कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः’, यानी भयानक फल देने वाला पराया धर्म में
( क्रमशः आगे)
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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