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दे मॉं सरस्वती : विद्या के संग विनय

विद्या के संग विनय
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मैंने मेरे जीवन में कितनो को देखा है कि विद्या तो बहुत ग्रहण की है लेकिन उनमे विनय नहीं या कम है । यह स्थिति क्यों हो रही है इसके पीछे के कारणों में हम जाये तो पायेंगे कि यह संस्कार , परवरिश व संगत का वातावरण आदि घटक है ।

ज्ञान से जीवन का पथ आलोकित बनता है। ज्ञान का सूरज हर कदम पर साथ चलता है पर अहंकार का राहू जब डस लेता है सूरज को तो भरी दुपहरी मे भी सबकुछ धुंधला लगता है।

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ज्ञान को हमेशा लगातार सुधारना, ललकार देना और बढ़ाना होता है, नहीं तो ज्ञान धीरे धीरे ग़ायब हो जाता है, ज्ञानी व्यक्ति ही उसके ज्ञान के वजह से ज्यादा बलशाली होता है, ज्ञान एक खजाना है और अभ्यास इसकी चाबी है,  ज्ञान एक विलक्षण शक्ति है, जिसे हम नहीं समझ सकते उसे समझना ही ज्ञान हैं।

अतः ज्ञान से विनम्रता आती है और विनम्रता से पात्रता, और बाटने से ज्ञान कभी खत्म नहीं होता बल्कि और बढ़ जाता हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने एक बार कहा था, विद्या ददाति विनयं भी सही है और विनयं ददाति विद्या दोनो ही सही है।

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सचमुच देखे तो विद्या से विनयं का और विनयं से विद्या का विकास होता है।आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी तो स्वयं एक उदाहरण थे, विश्व स्तर के दार्शनिक, प्रकांड विद्वान और विनम्रता की मिसाल।

ज्ञान में अहंकार उसी प्रकार मिश्रित होता है जिस प्रकार दूध में पानी, वास्तविक ज्ञानी हंस के समान होता है, जो ज्ञान तो प्राप्त करता है किन्तु उसके साथ मिश्रित अहंकार त्याग देता है, अतः अहंकार रहित ज्ञान ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग है जिस पर चलता हुआ आगे व्यक्ति ईश्वर साक्षात्कार के लक्ष्य तक पहुँचता है।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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