स्वधर्मो निधनं श्रेय: पर धर्मो भयावह : भाग-2
जीने से, निजी धर्म में रहकर ही मरना बेहतर है। वह हम भय, दुख और अशांति आदि में जीने से अच्छा है कि निर्भयता, शांति व खुशी-खुशी आत्मधर्म ( संलेखना संथारा ) आदि में रहकर शरीर छोड़ें।
आत्मा को या अंतरात्मा को संस्कृत भाषा में ‘ स्व’ कहा जाता है, जो कि जड़ शरीर से अलग एक चेतन सत्ता है। यह एक शुद्ध दिव्य ज्योति बिंदु स्वरूप है। यह हमारे शरीर में मस्तिष्क के मध्यभाग और भृकुटि के बीच में विराजमान एक चमकता हुआ अजब सितारा है या इसको मैं कहुँ कि आत्मा सम्पूर्ण केवल ज्ञान को प्राप्त कर ले वह अवस्था है ।
केवल ज्ञान प्राप्ति आत्मा का शुद्ध रूप का अवसर है इस समय पर शरीर के साथ ‘स्व’ को मिलाकर, या जीव के साथ आत्मा को जोड़कर ही किसी व्यक्ति का परिचय दिया जाता है या इसको मैं कहूँ कि केवली वीतराग अवस्था प्राप्त मानव तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
हम देखते है कि अधिकतर व्यक्ति के दैहिक नाम, आयु, माता-पिता, व्यवसाय, देश, जाति, धर्म, भाषा आदि – आदि का परिचय देते हैं इसलिए इंसान चाहे किसी भी जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग, देश या संप्रदाय का आदि क्यों न हो, उसकी देह की रचना, रंग रूप, आकृति कैसी भी हो,लेकिन सभी का आत्मधर्म और स्वधर्म एक जैसा है क्योंकि सभी आत्मा मनुष्य भव में कर्म क्षय करने के बाद मोक्ष को जाने में सक्षम है ।
कर्म पुदगल सभी आत्मा के अलग- अलग होते है । इस संसार में सभी व्यक्ति या धर्म संप्रदाय आदि मानवता का मूल धर्म शांति, स्नेह, अमन या भाईचारा आदि को चाहते है ।
हम सभी को प्राप्त ज्ञान के अनुसार करुणा, दया, शांति, प्रेम, पवित्रता, सुख, आनंद, अहिंसा, सहयोग और सद्भावना आदि सकारात्मक गुण ही मनुष्य की अंतरात्मा यानी ‘स्व’ का धर्म है। यह स्वधर्म, हर आत्मा का
( क्रमशः आगे )
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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