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स्त्री पैदा नही होती है बल्कि स्त्री गढ़ी जाती है

स्त्री पैदा नही होती है बल्कि स्त्री गढ़ी जाती है आइए जानते हैं इस महिला के उदाहरण से

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ज्यादातर महिलाओं की जिंदगी आसान नही होती है। शायद इसलिए नारीवादी चिंतक कहते हैं कि स्त्री पैदा नही होती है बल्कि स्त्री गढ़ी जाती है। यह बयान हर स्त्री की कहानी पर है।

नारीवादी चिंतक और विचारक सिमोन ने स्त्रियों की समस्या को ध्यान में रखकर इतिहास, विज्ञान, दर्शन के साथ समायोजित करके उसे आर्थिक सामाजिक संदर्भ में देखकर उसकी व्याख्या करने की कोशिश की है, साथ ही उन्होंने अपने विचारों के अनुसार अपने जीवन को जीने की भी कोशिश की है।

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उन्होंने महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर काफी जोर दिया है। हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश की माया बोहरा की जिन्होंने पितृ सत्तात्मक बेडियों को तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बना कर आज कई महिला के लिए एक आदर्श है।

अपने बचपन को याद करते हुए माया कहती हैं कि उनका जन्म कोलकाता में 1968 में हुआ था। लेकिन 3 महीने बाद ही उनके दादा-दादी उन्हें लेकर राजस्थान के एक छोटे से गांव चले गए क्योंकि उनकी मां की तबीयत सही नही रहती थी।

दादा-दादी के पास उनका बचपन खुशनुमा था। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ उन्हें जिंदगी के तजुर्बे होने लगे। वह अपने दादा दादी के साथ करीब 8 साल तक रही इसके बाद फिर वह वापस कोलकाता चली आई।

तब उनके एक छोटी बहन और भाई भी आ चुके थे और उन्हें यह एहसास हो गया कि वह बड़ी हो गई है। कोलकाता उनके लिए अलग जगह थी क्योंकि वह अपने बचपन के शुरुआत के 8 साल अपने दादा दादी के साथ थी।

ऐसे में सामंजस्य बैठाने में उन्हें थोड़ा वक्त लगा। लेकिन मां का स्वास्थ्य अच्छा न होने की वजह से अपने भाई बहन की देखभाल उन्हें ही करनी पड़ती थी। इसी तरह भाई-बहन की जिम्मेदारियों को निभाते हुए गिरते पड़ते उन्होंने दसवीं तक की अपनी पढ़ाई पूरी की।

माया बोहरा कहती है दादा दादी के पास 8 साल मे उन्होंने एक तरह से अपनी पूरी जिंदगी जी ली थी। उनका यह सोचना एक तरह से सही भी है क्योंकि इसके बाद उन्होंने जीवन की जिस पटरी पर दौड़ना शुरू किया वहां हर कदम पर चुनौतियां थी।

अगर भारत की जनसंख्या 2011 के आंकड़े पर नजर डाले तो देश में महिला साक्षरता की दर 64.46% है जो की कुल साक्षरता दर से कम है। बहुत कम लड़कियां को स्कूलों में दाखिला करवाया जाता है।

कई लड़कियां ऐसी होती हैं जो बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं। इसके अलावा रूढ़िवादी सांस्कृतिक कारणों की वजह से भी बहुत सारी लड़कियां स्कूल नही जा पाती हैं। इस संघर्ष को माया ने बखूबी जिया है और पढ़ाई के लिए संघर्ष किया है।

माया बताती हैं कि पढ़ाई के लिए बचपन से ही उन्होंने संघर्ष किया। उन्होंने जीवन में आने वाली हर बाधा का सामना समझदारी से किया, जिससे वह अपने अंदर की छुपी प्रतिभा को रेखांकित कर सकी। कभी-कभी इसके लिए उन्हें अपने अपनों का ही विरोध भी सहना पड़ा।

माया बोहरा बताती हैं कि मारवाड़ी कल्चर  लड़कियों को शिक्षा देने का के लिए जागरूकता कम है। इसलिए जब वह दसवीं पास कर ली तब उनसे अपेक्षा की जाने लगी कि वह भी अब पढ़ाई छोड़ कर घर के कामकाज पर ध्यान दें लेकिन माया अपने घरवालों को यह विश्वास दिलाती रही कि वह पढ़ाई का असर घर के कामकाज पर नही पड़ने देगी।

माया बोहरा जब 11वीं क्लास में थी तब उनका परिवार फरीदाबाद शिफ्ट हो गया। इसी दौरान उनकी मां का स्वास्थ्य बिगड़ता गया और उन पर लगातार पढ़ाई को छोड़ने का दबाव भी बनाया गया।

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शुरू में माया बोहरा विज्ञान स्ट्रीम से पढ़ाई कर रही थी लेकिन स्कूल रोजाना न जा पाने की वजह से उन्होंने आर्ट स्टीम से पढ़ना शुरु कर दिया। फिर ज्यादा दबाव पड़ने पर उन्होंने प्राइवेट पढ़ाई की। परिजनों को दबाव और तमाम उलझन को झेलते हुए माया ने किसी तरह अपना ग्रेजुएशन पूरा किया।

इसके बाद उन पर शादी का दबाव बनाया गया लेकिन इसी बीच माया ने इंग्लिश लिटरेचर से MA के लिए फॉर्म भरा लेकिन चौथे सेमेस्टर की पढ़ाई होते होते उनकी सगाई कर दी गई। ससुराल वाले ने फाइनल की परीक्षा देने की अनुमति दे दी पर आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए संघर्ष जारी रहा।

माया बोहरा की तरह ही हमारे समाज में आज कई लड़कियों को इस तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। साल 2008 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 40% लड़कियां स्कूल में दाखिला नही दे पाती हैं और घरेलू कार्य में रहती हैं और कई सारी लड़कियां परिस्थितियों से समझौता करके उसे अपनी किस्मत मान लेती हैं। लेकिन माया ने साहस दिखाया और अपनी पढ़ाई जारी रखी।

माया बोहरा को पेंटिंग का शौक था। शादी घर और परिवार की जिम्मेदारी संभालते हुए उन्होंने पेंटिंग सीखना जारी रखा और एक बार प्रदर्शनी में भी पेंटिंग लगाई, जिसमें लोगों से उन्हें काफी सराहना मिली।

इसके बाद वह पेंटिंग के लिए औपचारिक प्रशिक्षण भी ली। पेंटिंग सीखने के दौरान उनकी जिज्ञासा मनोविज्ञान की तरफ हुई और उन्होंने बाल मनोविज्ञान को पढ़ना शुरू किया। इसके लिए वह किताब लेकर पढ़ने बैठ जाती थी।

इसी दौरान उन्हें मेंटल हेल्थ के बारे में जानकारी हुई और इस विस्तार से जानने के लिए इच्छा हुई। एक बार उनके बच्चों के स्कूल में उन्हें आमंत्रित किया गया और पूछा गया कि बच्चों की परवरिश किस तरह से वह करती है।

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इसी दौरान उनकी मुलाकात वहाँ मुख्य अतिथि के रूप में आई मनोविज्ञान की प्रोफेसर से हुई उन्होंने मनोविज्ञान की पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया।

इसके बाद माया ने अपनी जिंदगी में कई तरह के उतार-चढ़ाव अपनी जिंदगी में देखें। लेकिन इसके बावजूद वह पढ़ाई में लगी रही। आज वह मेंटल हेल्थ को लेकर लोगों को जागरूक करने का काम कर रही हैं।

माया बोहरा की कहानी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें कभी भी अपने सपनो से समझौता नही करना चाहिए बल्कि हमेशा अपने अस्तित्व के लिए लड़ते रहना चाहिए और अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए।

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