मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है कि मानव एक अनजान भय से ग्रसित होता है उसके कारण में मैं जाऊँ तो बहुत कुछ देखने को मिलता है लेकिन उसमे एक महत्वपूर्ण कारण है मानव के स्वयं के किए हुए कर्म वो जानता है मैंने गलत किया है इसलिये वो हर समय एक अनजान भय में रहता है।
भौतिकवाद,अर्थ, पद, प्रतिष्ठा एवं सांसारिक आदि के चक्कर में हम हमेशा उलझें ही रहतें है और धर्म – ध्यान, तपस्या आदि की बात आये तों हम कल के भरोसे छोड़ देतें है।
अतः हम समय में सें सही समय निकालकर आध्यात्मिक की और अग्रसर होकर, नित्य त्याग, तपस्या,स्वाध्याय साधना आदि करतें हुवें इस दुर्लभतम मनुष्य जीवन का पूरा सार निकालते हुवें अपने परम् धाम की और अग्रसर हों।
आख़िर मंज़िल कैसे मिलेगी चाहे उसके लिए वह कितने भी प्रयत्न करे। जब मन में आयी इसकी समझ तब तड़पन पैदा हुई । मंज़िल पाने बोल उठा स्वयं इंसान अपनी मंज़िल स्वयं तय करेंगे। न किसी का हो शोषण और न किसी की हो हिंसा।
न किसी का हो भय और न किसी के आगे झुकना। पूर्ण एकाग्रता के साथ मंज़िल की ओर बढ़ेंगे चरण ।आख़िर मंज़िल पर पहुंचकर बढ़ाएंगे मानव जाति का मान सम्मान।
आचार्य तुलसी द्वारा रचित विजयगीत – मंज़िल पाने के लिए दिल में बजने लगे इसका निरंतर संगीत । आख़िर मंज़िल मिल जायेंगी यह स्वप्न निश्चित रूप से होगा फलित । जिन्दगी बहुत कीमती है क्योंकि यह दुर्लभ हैं ।हमारी जरा सी समझ से इसका स्थायी हल सुलभ हो सकता है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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