आपने कहा कि अच्छा होता कि हम अपनी धरती ही सुधारते और बेचारे चॉंद को अपने भाग्य पर छोड़ देते। इसमें आप आगे बताते है कि अभी तक तो हमारी मूर्खताएँ धरती तक ही सीमित रही हैं।
उन्हें ब्रह्माण्ड व्यापी बनाने में मुझे कोई ऐसी बात प्रतीत नहीं होती जो विजयोत्सव मनाने लायक हुई है। हम चन्द्रमा पर पहुँच गए तो क्या ?
आगे उन्होंने बहुत मार्मिक बात कही है कि हम इस धरती को ही सुखी नहीं बना पाए तो यह प्रगति हमारी बेमानी है।
सचमुच हम प्रकृति की उदारता और उसके मौन संदेश को, काश समझ पाते। उसके निष्काम त्याग के भाव, हमारे मन की बगिया मे भी कुछ जन्म जाते। सच मानों, स्वर्ग सी रूबरू तस्वीर धरती के कण-कण मे दृष्टिगत होती ।
देव भी हमारे इस निष्काम, निस्पृह निष्ठा के आगे अपना सर शान से झुकाते। विशाल ब्रह्मांड का कण कण हमें सीख देता है अपनी उदारता से।
धरती माँ हमें सहना सीखाती है पानी,अग्नि ,वायु हमेंमर्यादा में रहना सिखाते हैं ।आकाश हमें विशालकाय छाती रखकर निस्वार्थ भाव से सबका सहयोग करना सिखाता है। पर्वत हमें गर्व से ऊंचा सिर हो ऐसा करने कीप्रेरणा देता है ।
फलों से लदी टहनियां हमें विनयपूर्वक झुकना सिखाती है । नदी सदा मिलजुलकर सतत प्रवाहमान रहने की प्रेरणा देती है , इतना ही नहीं खिड़कियां हमे मन के मेल को दूरकर ज्ञान का प्रकाश भरने की प्रेरणा देती है।
दीवार पर लगी घड़ी हमें समयकी नश्वरता को समझ उसका सदुपयोग करके जीवन सुधारने की प्रेरणा देती है औरभी बहुत सारी जीव और अजीव चीजेँ हमे प्रेरित करती हैं ।
इस तरह आवश्यक नहीं मेरा और आपका मत रसेल साहब से मिले पर उनके चिन्तन पर हमारा विचार करने के रास्ते तो खुलें।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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