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सही उच्चारण का असर

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हम किसी को मिलने पर यह कह देते है कि मैं इतना वर्ष का हो गया हूँ लेकिन उस समय यह एकदम से भूल जाते हैं कि हो गए सो तो हो गए पर वास्तव में हमारे जीवन के इतने वर्ष खो गए हैं ।

क्योंकि हम निरन्तर जी नहीं रहे बल्कि सत्य तो यह है, तथ्य तो यह है,हम निरन्तर रोज मर रहे हैं।हमारे आउखे कि घड़ी जो अनिश्चित हैं वह कभी भी आ सकती है । जो उदित होता है,वह निश्चित ही समय आने पर अस्त होता है।

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इस सच्चाई को आत्मसात करने वाला कभी पस्त नहीं होता है।सृष्टि का यह शाश्वत नियम जङ, चेतन दोनों पर लागू होता है । जन्म-मरण के रहस्य को जानने वाला कभी त्रस्त नहीं होता है।साँस जीवन-मृत्यु के बीच का पुल है।

जहाँ जीवन-मृत्यु के अतिरिक्त संकोच, विकलता, अवकाश, गुँजाइश जैसे कई अभिप्रायों की उत्पत्ति होती है लेकिन ये कब कहाँ टूट जाये इसका किसी को पता नही चल पाता है ।

आम इंसान तो यही जाने कि जीवन एक एहसास है , अल्पावधि का मधुमास है , निश्चित इसका विनाश है , इसलिए जब तक साँस है, तब तक आस है और ये साँसे जीवन में धागा बन व्यक्ति के सपने, रिश्ते-नाते सब बुनती है।

जब तक सब करीब है तो अपनापन है, वरना सीने में सांस भी पराई सी लगती है तो.. जितनी साँसे मिली है उसका उपयोग हो अच्छी प्रवृति में, स्नेह श्रुति में ।

माना कि मृत्यु पर मेरा ज़ोर नहीं पर शरीर तो मेरा अपना है , चाहूँ जैसे जीवन पा सकता हूँ मौज मस्ती या रोष रंजिश का , शांति और प्रेम का , भोग विलास और क्लेश का या अप्रमत्त हो देह से विदेह का अगर यह सत्य, यह तथ्य सही अर्थ में हमारे मन में बराबर रहे तो स्वतः ही अध्यात्म की लौ जीवन में सही से प्रज्ज्वलित रहेगी ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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