कहते है कि बीत जाती है यूँ ही पूरी जिन्दगी, जोङ-घटाव के अन्तहीन ख्याली पुलाव में। उलझते ही जाते है सच्चाई जानते हुए भी, खुद के बुने हुए मक्कङ जाल मे। मोह-माया के अदृश्य पाश मे बंधे हर इन्सान की कमोबेश यही कहानी है।
भरोसा पल का भी नहीं, फिर भी लगे हुए हैं सात पीढी की सलामती के जंजाल मे। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है धन के प्रति आकर्षण। इंसान चाहे छोटा हो या बड़ा,धन के मोह में ऐसा फँसता है कि उससे दूर होना जैसे एक शराबी को शराब से दूर करना।
जिसके पास कल तक कुछ नहीं था, आज बहुत कुछ है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है वैसे-वैसे धन की तृष्णा के चक्रव्यूह में ऐसे फँसता है जैसे अभिमन्यु।उस चक्रव्यूह में घुसना तो आसान है पर बाहर आना बहुत मुश्किल है।
हर व्यक्ति जानता है कि अंत समय में एक पाई भी यहाँ से लेकर नहीं जायेंगे पर धन की तृष्णा का आवरण आँखों के आगे ऐसा आता है कि वो इंसान धन का सही उपयोग करना तो भूलता ही है और साथ में धार्मिक क्रियाओं से भी दूर हो जाता है।
इंसान नीचे बैठे दौलत गिनता है और कर्मदेव उसके दिन क्योंकि आज के बाद फिर कभी यह आज का दिन नहीं आने वाला है । इसलिए इसे यूँ ही व्यर्थ न जाने दें इसका भरपूर उपयोग करें।
उचित तो यह होगा कि हर आज का दिन हमारे जीवन का इतिहास बन जाये हर दिन से जिन्दगी खास बन जाये। यह तभी सम्भव है जब हमारे मन में एक ललक हो, जागरूकता से प्रयत्न अपलक हो ,मन सदा सन्तुष्ट हो क्योंकि सन्तुष्ट मन सबसे बड़ा धन हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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