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आइए जानते हैं दुर्गा बाई की कहानी, किस प्रकार तय किया घर में झाड़ू पोछा लगाने से लेकर पद्मश्री तक का सफर

Padma Shri Durgabai Vyam ki kahani
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आइए जानते हैं मध्य प्रदेश के डिंडोरी की रहने वाली दुर्गा बाई की प्रेरक कहानी , दुर्गा बाई को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है परंतु दुर्गा बाई का यहां तक पहुंचने का सफर काफी कठिन रहा है।

दुर्गा बाई व्योम ( Durga bai vyam ) का मूल निवास स्थल मध्य प्रदेश के डिंडोरी के छोटे से गांव बुरबासपुर है। दुर्गा बाई अपने बचपन में कभी भी स्कूल नहीं गई परंतु कला के मामले में आज पूरे देश में अपना

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नाम बना लिया है। दुर्गाबाई कला के क्षेत्र में काफी अधिक निपुण है इसलिए उन्हें आदिवासी कला के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को लाने के लिए उन्हें हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।

परंतु दुर्गा बाई के लिए यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल था उन्होंने कई कठिनाइयों का सामना करके सफलता हासिल की है। जानकारियों से पता चला है कि दुर्गा बाई के चार भाई बहन थे

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और उनके पिता का नाम चमरू सिंह था, एवं उनके पिता की आर्थिक कमाई उतनी अच्छी नहीं होने के कारण उनकी परवरिश सही रूप से नहीं हो पाई और यही कारण था कि उन्होंने कभी स्कूल के देहलीज को देखा भी नहीं था।

परंतु भले ही दुर्गा बाई की परवरिश अच्छी तरह से ना हो पाई हो परंतु बचपन से ही चित्रकारी का काफी शौक था दुर्गा भाई ने बचपन में 6 साल की उम्र से चित्रों को बनाना शुरू किया था और आज चित्रों का बनाने का कारवां कभी रुका ही नहीं है वह अभी तक अपनी चित्रों की कला को जारी रखा है।

दुर्गा बाई द्वारा की गई चित्रकारी में गोंड समुदाय से जुड़ी हुई लोक कथाओं की झलक देखने को मिलती है। दुर्गा बताती है कि वह अपनी चित्रकारी की कला को अपने पूर्वजों का आशीर्वाद समझती है, दुर्गा बाई ने अपनी मां और  “दिग्ना” कला को सिखा था।

इस कला में शादियों और खेती से जुड़े त्योहारों में घर की दीवारों पर एक विशेष प्रकार की खास अंदाज से छवि उकारी जाती है। धीरे-धीरे यही शैली दुर्गा बाई की पहचान बन गई , और आज दुर्गाबाई को पूरा भारत में उन्हें इस चित्रकला की पहचान से जानता है।

खबरों से पता चला है कि दुर्गाबाई जब महज 15 वर्ष की थी तब उनका विवाह सुभाष व्योम से हो गया था, सुभाष व्योम मिट्टी और लकड़ियों से मूर्ति बनाने के लिए जाने जाते थे।

दुर्गा बाई कहती है की उनके पति को वर्ष 1996 मैं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय संग्रहालय में लकड़ी की आकृतियां बनाने का कार्य मिला था और इस प्रकार ही पहली बार अपने गांव से बाहर आई थी।

दुर्गा बाई जब अपने गांव से बाहर निकली उन्होंने अपनी चित्रकला को जारी रखा और यही वक्त था जब जानगढ़ सिंह और आनंद सिंह श्याम जैसे गोंड कलाकारों ने उनकी चित्रकारी को

पहचाना और उन्हें गोंड चित्रकारी की और भी कलाओं को सिखाया, और यही वक्त था जब उनके बेटे की तबीयत काफी खराब हो गई और उन्हें भोपाल में काफी समय तक के लिए रहना पड़ा।

दुर्गा ने भोपाल में रहकर अपनी काबिलियत को पहचान लिया और अपनी चित्रकारी को एक पहचान देने के लिए भोपाल में ही रहने का मन बना लिया था। दुर्गा बाई अपनी चित्रकारी को पहचान देने के लिए सबसे पहले वर्ष 1997 में भारती भवन से जुड़ गई और अपनी पहली पेंटिंग को प्रदर्शित किया।

दुर्गा बाई के लिए भोपाल जैसे बड़े क्षेत्र में रहना इतना आसान नहीं था इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए और उनकी परवरिश को ठीक से करने के लिए घरों पर गांव झाड़ू पोछे का कार्य करना चालू कर दिया था।

धीरे-धीरे दुर्गा बाई भोपाल में रहकर ही अपने घर को चलाने लगी और धीरे-धीरे इनकी चित्रकारी और पेंटिंग भी काफी मशहूर होने लगी और लोगों द्वारा पसंद भी की जाने लगी।

आज दुर्गा बाई की चित्रकला को पूरा भारत देश पहचान रहा है, दुर्गा बाई को पद्मश्री से सम्मानित करने से दुर्गावती राष्ट्रीय अवार्ड और विक्रम अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है।

आज दुर्गाबाई ना केवल भारत वर्ष में इसके साथ ही साथ बाहरी कई देशों में आदिवासी चित्रकला को प्रदर्शित कर रही है। दुर्गा बाई यूएसए में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम में आदिवासी कलाओं से वहां के लोगों को परिचित कराया था।

दुर्गा बाई ने संविधान के निर्माता भीमराव अंबेडकर के जीवन को पेंटिंग के जरिए दर्शाया है, और यह कई अलग-अलग 11 भाषाओं में प्रकाशित हो चुका है।

दुर्गा बाई कहती है कि पिता के द्वारा शिक्षित ना किए जाने का किसी प्रकार का गम नहीं है खुशी इस बात की है कि मेरे पिता ने कभी हमें इस चित्रकारी के लिए रोक नहीं की और मैं इस बात के

लिए अपने पति को भी धन्यवाद देना चाहूंगी क्योंकि शादी के बाद भी मेरे पति ने हमेशा मेरा साथ दिया और अभी भी मेरी चित्रकारी के लिए रोक टोक नहीं किया।

दुर्गाबाई शादी के बाद भी चित्रकारी करती रही और अपने तीन बच्चों की परवरिश भी करती थी, आज दुर्गाबाई ने यह साबित कर दिया कि विवाहित महिलाएं भी अपना नाम रोशन कर सकती

है, वह कहती हैं कि सफलता हासिल करने के लिए उम्र मायने नहीं रखती है मायने रखता है तो लगने से किया हुआ कार्य, आज  दुर्गाबाई की चित्रकला के कारण दुर्गाबाई को पूरा भारत वर्ष जानता है और सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित भी कर दिया गया है।

और चित्रकारी के मामले में महिलाएं सबसे अधिक निपुण होती हैं और भारत देश में कला-कृतियों और चित्रकारी के मामले में प्राचीन कलाओं में महिलाओं को सबसे अधिक निपुण माना जाता था।

वास्तव में दुर्गा बाई देश की कई असहाय महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं क्योंकि उन्होंने छोटे से समाज से निकलकर बड़े पद पर अपनी जगह बना ली है। हम आशा करते हैं कि दुर्गा बाई अपने इस जज्बे को ऐसे ही बना कर कई महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने।

बाई बताती है कि वह सफलता ही क्या जिसे हासिल करने में कठिनाइयों का सामना ना करना पड़े, इसलिए हमेशा ही कठिनाइयों से लड़ने के लिए तैयार रहें और इस प्रकार सफलता आपको अवश्य मिलेगी।

 

लेखिका : अमरजीत कौर

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