हम प्रेम से शब्द का निर्मल नीर पीकर अपने मन की छवि को सजायें । वह हम धर्म – ध्यान पढ़कर जगत में नेक इंसा कहाएँ। हम शब्द-शब्द के ज्ञान आलोक से अपने जीवन को अच्छा आदर्श बनायें।
वह हम गाँठ बांधे प्रेम की मुक्ति की शुभ राह पाएँ। हम देखते है कि बच्चे बोलना, चलना, नये शब्द पकड़ना आदि – आदि सभी क्रियाएँ बड़ी आसानी से सीख लेते हैं क्योंकि एक तो , उनके मस्तिष्क की स्लेट एकदम कोरी होती है।
वह दूसरी उनकी मस्तिष्क कोशिकाओं में मुमकिन-नामुमकिन जैसी कोई भी शब्दावली नहीं होती है। वह धीरे-धीरे जैसे -जैसे वे बड़े होते जाते हैं , उनके दिमाग में, हर बात में, संभव-असंभव आदि के प्रश्न खड़े होने लग जाते हैं।
यह तथ्य है कि शब्द कोई स्पर्श नहीं कर सकते है पर शब्दों में इतनी शक्ति है कि वे बोलने के लहजे से ही अपना प्रभाव छोड़ देते। अत: हम शब्दों को सोच सोच कर बोलें।
वह बोलने से पहले मन ही मन शब्दों को तोलें। हम यदि अपने जीवन में सही से कब, कहॉं और कैसे आदि बोलना सीख जाएँ तो बहुत से झगड़े टल जाएँ , क्योंकि हमारे शब्द ही है अधिकांश जगह कलह का कारण यदि हम उनके मूल में जाएँ क्योंकि शब्द सब जगह मुफ्त में मिलते हैं।
हम जिस तरह उसका उपयोग करें, हमको उसकी वैसी ही कीमत चुकानी पड़ती है।हमारी वाणी में भी अजीब शक्ति होती है, कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता और मीठा बोलने वाली की मिर्ची भी बिक जाती है।
अतः बेहतरीन इंसान अपनी मीठी जुबान से ही जाना जाता है वरना अच्छी बातें तो दीवारों पर भी लिखी होती हैं । इंसान एक दुकान और जुबान उसका ताला है ।
( क्रमशः आगे)
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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